तन्हाई ( एक नज़्म)
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तन्हाई
अजीब शै है ये
तन्हाई
माज़ी के दहलीज़ पे दस्तक दे कर
खोल देती है दरवाज़े तमाम
और यादों के सैलाब से भर जाता है
ज़ेहन का गलियारा
तन्हाई
कभी कभी मुस्तक़बिल के दरीचे भी खोलती है
और हमारी निगाहें देखती हैं
आने वाले लम्हों की अजनबी सी तस्वीरें
तन्हाई
क्या वाक़ई होती है कभी तन्हा
शायद नहीं
कभी ख़्यालों का समंदर
कभी तसव्वुर के लामहदूद सिलसिले
कभी दर्द कि महफ़िलें
और कभी अरमानों की बारात
तन्हाई की मौज़ूदगी अक्सर महकती है
कभी विसाल-ए -यार के बचे खुचे खुश्बू से
और कभी जले हुए अधूरे ख्वाब कि बू से
तन्हाई का ज़ायका
कभी होता है मुहब्बत कि सरगोशियों की मिठास लिए
तो कभी ये किसी पुराने तल्ख़ अल्फाज़ की करवाहट की तरह
तन्हाई
अगर सचमुच तन्हा हो
तन्हाई अगर वाक़ई आज़ाद हो
बीते हुए कल के दस्तानो से
तन्हाई अगर वाक़ई आज़ाद हो
आने वाले कल के सवालो से
तन्हाई अगर निकल आये
खुशी व ग़म के दायरे से
तन्हाई अगर उबर जाये
उम्मीद और मायूसी के दलदल से
तो ये तन्हाई सफ़र बन जाती है
ख़ुदी का सफ़र
इस ख़ुदी के सफ़र में
हम नापते हैं सांसों कि रफ़्तार
हम उतरते हैं एहसास के ज़ीने से
अपने दिल के सेहन में
और देखते हैं
ज़मीर के आईने में
खुद का अक्स
ऐसी ही तन्हाई शक्ल ले लेती है
इबादत का
और हमें दीदार कराती है
अनवार -ए -इलाही का
ज़रा सोच कर देखो
क्या होगा
अगर तन्हाई
खुद हो जाये
तन्हाई का शिकार
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