Tuesday, March 18, 2014

वक़्त:एक नज़्म

वक़्त:एक नज़्म 

सच है

वक़्त एक खंज़र है 
 हमें ज़ख्म देता
ये पुराने  ज़ख्मो को कुरेद कर  
हरा भी करता है

वक़्त के तेज़ झोंके
बुझा  देते हैं  ख्वाबों के चिराग

वक़्त की चिंगारी, कई बार
नन्हे अरमानो को खाक कर देती है

बह जातें वक़्त की लहरों में
उम्मीद के छोटे छोटे जज़ीरे 

ये वक़्त रहज़न भी ह़ै
लूट लेता है हसरतों का  कारवाँ 



लेकिन...
 यही वक़्त मरहम बनकर
वक़्त बेवक़्त
कई पुराने ज़ख्म़ो को भरा भी करता है 

वक़्त की धूप में
ना जाने कितनी अश्‍क़ आलूदा यादें सूख जाती हैं

वक़्त की ठंडी बूँदों से
ना जाने कितने सुलगते हुये
दिलों  को चैन मिलता है

इसी वक़्त की बेपरवाह तपिश से
बहुत से मूंज़मिद दर्द पिघल जाते हैं

इसी वक़्त कि लपट में 
कई ग़म जल भी जाते है 

कई बार वक़्त , वक़्त पे आकर हमें बर्बादियों से बचा लेता है 
कभी कभी  ये वक़्त ज़र्रे को आफताब भी बना देता 

गोया की
वक़्त रफ़ीक भी है सितमगर भी है 
वक़्त क़ातिल भी है वक़्त चारागर भी है 
वक़्त हर रोज़ करिश्मे करता है 
इसकी हाथों में जादू का असर भी है 

हाँ … 
वक़्त कुछ भी हो सकता है
वक़्त कहीं भी हो सकता है 
वक़्त कभी हो सकता है

पर वक़्त बे-वक़्त नहीं होता

कभी देखा है तुमने दो बजे चार बजते हुए।  

No comments: