Monday, March 13, 2017

GHAZAL

ग़ज़ल 


दस्तूर-ए -वफ़ा निभाता तो मैं निभाता कैसे 
पा बाजौलां था ,तेरे दर आता तो आता कैसे 

एक शीशे की दीवार थी हमारे दरम्यां पोशीदा सी 
हाल -ए -दिल आखिर मैं  बताता तो बताता कैसे 

छुपा रखा था एक मुजस्समा महबूब का उसमे 
अपने दिल को आग में जलाता तो जलाता कैसे 

लबों पे शिकन थी और ज़बां पे पड़े थे छाले 
उनको देखकर मुस्कुराता तो मुस्कुराता कैसे 

 वहीँ पे मिलने का किया था वादा उसने सदियों पहले 
उस बयाबां  मैं  गर लौट के आता तो आता कैसे 


संग-ए -मर भी था, संग तराशी का हुनर भी था मुझमें 
पर मुमताज़ न थी तो ताजमहल बनाता तो बनाता कैसे 

लफ्ज़ पे व जुमलो पे लगा दी थी पाबन्दी उस ने 
फिर दास्तान अपनी मैं सुनाता तो सुनाता कैसे 

जब अज़ल ने ही  इंकार कर दिया मेरे क़रीब आने से 
 अपनी हस्ती को मैं ख़ाक में मिलाता तो मिलाता कैसे 

शोख़ हवाओं ने बता दी तेरी ज़फ़ा किस्से सब को 
 फिर ज़माने से ये बातें  मैं छुपाता तो छुपाता कैसे 







Sunday, March 12, 2017

Ghazal

ग़ज़ल 

अपने बेताब अरमानों को उसके रुबरु किया मैने
आज कुछ  इस तरह से उस से गुफ्तगू किया मैने

लफ़्ज़ों के खंज़र से जिगर चाक किया फिर उसने
और सब्र के धागों से फिर से दिल का रफू किया मैने

तल्खियाँ सारी भूल गया मैं रात के गुज़रते गुज़रते
सहर होते ही उस से मिलने का फिर ज़ुस्तज़ू  किया मैने

उसने कहा की जाओ और डूब मरो दरिया में
उसकी जो ख्वाहिश थी वही हूबहू किया मैने

मयखाने के आदाब निभाए मैने  इस तरह से अब्द
के मयकदे  जब भी गया तो पहले वज़ू किया मैने