Thursday, June 21, 2018

Ghazal

एक ग़ज़ल


रहने दे अब, इतने ग़म का ब्यान काफी है
मेरे लिए तो इतनी ही दास्तान काफी है


नहीं दरकार शोलों को हवा देने की यहां
बस्तियां जलाने को उसकी ज़बान काफी है


जख्म-ए -दिल, चाक जिगर के अलावा भी
उस संगदिल का  मुझ पर एहसान काफी है


इलाज -ए -ग़म के बजाये जो दर्द बढ़ा देता है
ऐसे चारागर से मिलने का अरमान काफी है


तेरे फरेब के लाल-ओ-जवाहिर तुझे मुबारक हो  
मेरे लिए मेरा ज़मीर व मेरा ईमान काफी है


हुईं सदियाँ इस कब्र में सोये हुए ऐ अब्द
लेकिन अभी भी ज़ीस्त की थकान काफी है


Saturday, June 02, 2018

Ek Ghazal

ग़ज़ल


ज़िंदा अपने सोये हुए जज़्बात किया कर
जुबां है तेरे पास हक़ की बात किया कर

यूँ तो मिलते रहते हो सारी दुनिया से तुम
खुद से भी तो कभी मुलाकात किया कर

अकेले इंक़लाब नहीं आता ऐ मेहनतकशों  
जो भी करना है मिलके सब साथ किया कर

हो कशीदगी कम और चलन प्यार का बढ़े
तू मुल्क में पैदा कुछ ऐसे हालात किया कर

अहले दौलत पर तेरी मेहरबानियां है बहुत
मुफ़लिसों को भी तो कुछ इनायात किया कर

कैसे जीते हैं लोग बस्तियों में ये जानना है अगर

तो निकल महल से और सड़कों पे रात किया कर