एक ग़ज़ल 
रहने दे अब, इतने ग़म का ब्यान काफी है 
मेरे लिए तो इतनी ही दास्तान काफी है 
नहीं दरकार शोलों को हवा देने की यहां 
बस्तियां जलाने को उसकी ज़बान काफी है 
जख्म-ए -दिल, चाक जिगर के अलावा भी 
उस संगदिल का  मुझ पर एहसान काफी है 
इलाज -ए -ग़म  के बजाये जो दर्द बढ़ा देता है 
ऐसे चारागर से मिलने का अरमान काफी है 
तेरे फरेब के लाल-ओ-जवाहिर तुझे मुबारक हो  
मेरे लिए मेरा  ज़मीर व मेरा ईमान काफी है 
हुईं सदियाँ इस कब्र में सोये हुए ऐ अब्द 
लेकिन अभी भी ज़ीस्त की थकान काफी है