एक ग़ज़ल
मोहब्बत का सुरूर, इश्क़ का ख़ुमार बुरा लगता है।
नफरत का चलन हो तो ये प्यार बुरा लगता है ।
अब तो आदत सी हो गयी है तौहीन की मुझको
अंदाज़-ए- तग़ाफ़ुल से बस एक बार बुरा लगता है
जिनका पेशा है बस्तियों और शहरों को वीरां करना
उन हज़रात को मौसम -ए -बहार बुरा लगता है
जो ख़ार का व्योपार करतें हैं जीने के लिए
उन्हें गुलशन का गुल -ए -गुलज़ार बुरा लगता है
धोका और फरेब यहां तहज़ीब का हिस्सा है
ऐय्यारों के शहर में लफ्ज़ ऐतबार बुरा लगता है
भूक और प्यास की शिद्दत से कोई हो परेशां तो उसे
चांदनी रात बुरी लगती है वस्ले यार बुरा लगता है
क़त्ल होना ‘अब्द’ उतना बुरा नहीं है लेकिन
दारकश का एक लम्बा इंतज़ार बुरा लगता है
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