ग़ज़ल
ज़िंदा अपने सोये हुए जज़्बात किया कर
जुबां है तेरे पास हक़ की बात किया कर
यूँ तो मिलते रहते हो सारी दुनिया से तुम
खुद से भी तो कभी मुलाकात किया कर
अकेले इंक़लाब नहीं आता ऐ मेहनतकशों
जो भी करना है मिलके सब साथ किया कर
हो कशीदगी कम और चलन प्यार का बढ़े
तू मुल्क में पैदा कुछ ऐसे हालात किया कर
अहले दौलत पर तेरी मेहरबानियां है बहुत
मुफ़लिसों को भी तो कुछ इनायात किया कर
कैसे जीते हैं लोग बस्तियों में ये जानना है अगर
तो निकल महल से और सड़कों पे रात किया कर
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