ग़ज़ल
प्यार बहुत कुछ, पर जान से बढ़ के थोड़े है
है दौलत ज़रूरी, पर ईमान से बढ़ के थोड़े है
तख़्त-ओ-ताज, लाल-ओ -जवाहिर चाहिए मुझे
ये सब लेकिन तेरी मुस्कान से बढ़ के थोड़े है
सुना है बड़ा शानो शौक़त है साहब-ए -मसनद का
मगर उनका जलवा , खुदा की शान से बढ़के थोड़े है
काशी, काबा या हो कलीसा, सब अपनी जगह हैं
इनकी क़ीमत मगर किसी इंसान से बढ़के थोड़े है
माना की हवा से बातें करती हैं उसके महल की मीनारें
लेकिन उसकी बुलन्दी इस आसमान से बढ़के थोड़े है
वैसे तो पढ़ा है मैंने खुसरो,ज़ौक़ और ग़ालिब को भी
लेकिन उनकी तहरीरें ‘अब्द’ के दीवान से बढ़के थोड़े है
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