ग़ज़ल
उल्फत झलक रही है चश्म-ए -पुर-आब में
पर इंकार भी छुपा है उसके जवाब में
कैसे आज उसने पहचाना नहीं मुझे
कल ही मिले थे हम तो उससे ख़्वाब में
हर सांस का हिसाब रहता है उसके पास
ये वक्त बड़ा माहिर है इल्म-ए -हिसाब में
क्या कहूँ कितना उसके बोसे में है सुरूर
मस्ती कहां मिलेगी मुझे उतनी शराब में
किस में ताब-ए -नज़ारा है ऐसे जमाल का
इसलिए तो आएं हैं वो यहाँ पे नक़ाब में
धड़कन ये चल पड़ी जब उसने मुझे छुआ
कुछ अक्सीर सा असर है उसके शबाब में
गर देखूं तो होश गुम न देखूं तो बेकली
अल्लाह जाने फंस गया हूं किस अज़ाब में
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