ग़ज़ल
दिल मे मेरे बस एक नन्हा सा ख़्वाब था
उस ख्वाब की आँखों में दर्द बेहिसाब था
गैरों से लेकर नूर चमकता फिरे है जो
रोशन फलक पर कल वही माहताब था
मेरे ही खत टुकड़े लिफाफे में मिले मुझको
मेरी वफ़ा का उनका कुछ ऐसा जवाब था
दिया ज़ख्म जो भी उसने मैंने लिया ख़ुशी से
मैं जानता था उसका कुछ बाक़ी हिसाब था
बहुत दूर तक था ये ज़ुल्मत का सिलसिला
चाँद ने चेहरे पे फिर से डाला नक़ाब था
अपनी खलिश को लेकर पहुंचे जहाँ पर ‘अब्द”
माहौल उस महफ़िल का भी पुर-इज़्तिराब था
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