Saturday, March 31, 2018

A New Ghazal

ग़ज़ल


उल्फत झलक रही है चश्म-ए -पुर-आब  में
पर  इंकार  भी छुपा  है उसके जवाब  में


कैसे  आज उसने  पहचाना नहीं    मुझे
कल ही मिले थे हम तो उससे  ख़्वाब में


हर  सांस का हिसाब  रहता है उसके पास
ये वक्त  बड़ा माहिर है इल्म-ए -हिसाब  में


क्या कहूँ कितना उसके बोसे में है  सुरूर
मस्ती  कहां मिलेगी मुझे उतनी  शराब में


किस में ताब-ए -नज़ारा है ऐसे जमाल का
इसलिए  तो आएं  हैं वो यहाँ पे नक़ाब में


धड़कन ये चल पड़ी जब उसने मुझे  छुआ
कुछ अक्सीर सा असर है उसके शबाब में


गर   देखूं  तो होश गुम न देखूं तो  बेकली
अल्लाह जाने फंस  गया हूं किस अज़ाब में






Thursday, March 29, 2018

A NEW GHAZAL


ग़ज़ल


दिल मे मेरे बस  एक नन्हा सा ख़्वाब था
उस ख्वाब की आँखों में दर्द बेहिसाब था

गैरों से लेकर नूर चमकता फिरे है जो
रोशन फलक पर कल वही माहताब था

मेरे ही खत टुकड़े लिफाफे में मिले मुझको
मेरी वफ़ा का उनका कुछ ऐसा जवाब था

दिया ज़ख्म जो भी उसने मैंने लिया ख़ुशी से
मैं जानता था उसका कुछ बाक़ी हिसाब था

बहुत दूर तक था ये ज़ुल्मत का सिलसिला
चाँद ने चेहरे पे फिर से डाला नक़ाब था

अपनी खलिश को लेकर पहुंचे जहाँ पर ‘अब्द”
माहौल उस महफ़िल का भी पुर-इज़्तिराब था