ग़ज़ल
दस्तूर-ए -वफ़ा निभाता तो मैं निभाता कैसे
पा बाजौलां था ,तेरे दर आता तो आता कैसे
एक शीशे की दीवार थी हमारे दरम्यां पोशीदा सी
हाल -ए -दिल आखिर मैं बताता तो बताता कैसे
छुपा रखा था एक मुजस्समा महबूब का उसमे
अपने दिल को आग में जलाता तो जलाता कैसे
लबों पे शिकन थी और ज़बां पे पड़े थे छाले
उनको देखकर मुस्कुराता तो मुस्कुराता कैसे
वहीँ पे मिलने का किया था वादा उसने सदियों पहले
उस बयाबां मैं गर लौट के आता तो आता कैसे
संग-ए -मर भी था, संग तराशी का हुनर भी था मुझमें
पर मुमताज़ न थी तो ताजमहल बनाता तो बनाता कैसे
लफ्ज़ पे व जुमलो पे लगा दी थी पाबन्दी उस ने
फिर दास्तान अपनी मैं सुनाता तो सुनाता कैसे
जब अज़ल ने ही इंकार कर दिया मेरे क़रीब आने से
अपनी हस्ती को मैं ख़ाक में मिलाता तो मिलाता कैसे
शोख़ हवाओं ने बता दी तेरी ज़फ़ा किस्से सब को
फिर ज़माने से ये बातें मैं छुपाता तो छुपाता कैसे
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