ग़ज़ल
अपने बेताब अरमानों को उसके रुबरु किया मैने
आज कुछ इस तरह से उस से गुफ्तगू किया मैने
लफ़्ज़ों के खंज़र से जिगर चाक किया फिर उसने
और सब्र के धागों से फिर से दिल का रफू किया मैने
तल्खियाँ सारी भूल गया मैं रात के गुज़रते गुज़रते
सहर होते ही उस से मिलने का फिर ज़ुस्तज़ू किया मैने
उसने कहा की जाओ और डूब मरो दरिया में
उसकी जो ख्वाहिश थी वही हूबहू किया मैने
मयखाने के आदाब निभाए मैने इस तरह से अब्द
के मयकदे जब भी गया तो पहले वज़ू किया मैने
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