एक ग़ज़ल
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मैं तेरी हर इनायतों का हिसाब रखता हूँ
दिल में खलिश, आँखों में आब रखता हूँ
नहीं कहता कुछ भी हाकिम -ए-मक़तल से मैं
मगर उसके हर सवालों का जवाब रखता हूँ
वैसे तो पीता हूँ खून-ए-जिगर शब-ओ-रोज़ मैं
पर अपने मेज़ की दराज़ों मे मैं शराब रखता हूँ
एक पुरानी सी जंग आलूदा संदूक है मेरे पास
इसी में सारे टूटे हुए अपने ख़्वाब रखता हूँ
कैसे भरने दूँ इसे, ये जख्म तो उसका दिया है
हर रोज़ सुबह अपने नासूरों पे तेज़ाब रखता हूँ